What makes me happy?

"What makes you happy? 
A large decorated house?" He asked
I can live in a small room
I will decorate it with
Hope aspirations and positivity.
For how good is a big house 
full of despair and negativity?
What about your laptop? He said.
That is for work... 
To self sustain, to not expect someone's mercy
What about your mobile? he said
That is for killing time...
I can talk with you the whole day, 
if only you sit by my side, 
and indulge my flights of fantasy...
Where will you sleep?
In your arms in a tight embrace..
That is all the luxury I need..
You for resting my head and your breath to warm me up.
What about the weekly restaurant visits? Can you do without those?
That is for escaping, I said
A simple meal with you is enough to fill me up.. 
You can live without any luxury? He asked.
Who doesn't like luxury? I said 'But try me...'
Try me.. I said
You will give up in two days, he smirked.
Try me.. I said.
I am tough and resilient... Try me, I said.
What if we are left with nothing...he wondered.
We will build more... I said. 
Just try me..
So you will be happy with nothing?
Not nothing...
You...
If you smile and laugh with me, 
Hug me and caress me,
Rest on my shoulder and let me rest on yours..
Celebrate with me the small pleasures
Be free, be hopeful, 
And believe...
Try me... I will be happy.

Brain Freeze?

Dull ache.. 
I am numb...
Strangers, neighbors
Friends, family
And widespread doom
Raging pyre fires
Singe me..
Scar me...
Fear surges in my veins..
I want to breathe..
But hold my breath
To swim through this tide...
Hoping to be on the other side
Unscathed..
Free..
Alive..
Breathing!

But..
The sea breathes
Unhindered...
And forests sway..
Celebrate birth of a new dawn
Sun smiles 
Moon sighs..
Nature thrives..

I am numb..
Dull ache..
The forever rush, 
All for nothing..
Time stands still!

A faraway voice,
Implores..
Pause.. Think.. Acknowledge
Pause...
.
.
.
Brain-freeze?

Zindagi me nazariye badal gaye hain….

Corona pandemic has forced each of us to rethink what is important in life…
Money or loved ones?
Desire to conquer the world or have another peaceful and free morning…
A Hindi poem for the changing attitude towards life…

ख्वाब बदल गए हैं
मर्जियां बदल गई हैं
जिंदगी को देखने के
अब नज़रिए बदल गए हैं…

कल तक थी आस
नाम की
शोहरत की
पहचान की
दौलत की…
देखते कहां थे हम
कौनसी कली खिली है
कौन मुई चिड़िया चहकी थी
लगे हुए थे एक दौड़ में
आज को भूल, कल की होड़ में

कैसा फिर है अब समय चक्र देखो
नहीं चिंता पैसे की
कपड़े की
ना छप्पन भोग की…
आज बैठे हैं सुन्न
सहमे हुए हाथ जोड़े
आस है तो सिर्फ
एक और सुबह की
एक और लम्हे की
अपनों के संग
गले लगने की
कभी ना बिछड़ ने की
फिर से मिलने की
संग हसने रोने झगड़ने की
पीठ थपथपाने की
रूठने मनाने की
ललक है ज़िन्दगी की…

सच ख्वाब बदल गए हैं
अब नज़रिए बदल गए हैं…

तू मेरा आसमां


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This year on Women’s Day, I had written a poem dedicated to men in my life…my husband and father. I forgot to post this poetry on blog but posted on Facebook.

Here it is now:

वो समंदर जहां
मिलता है न आसमां से
उस छोर तक तैर आऊं
चाहती हूं मैं
और हर लहर की तरह
किनारे पर लौट आऊं
चाहती हूं मैं….

वो आकाश जहां
झिलमिला जाते हैं न चांद सितारे
उस नीली छतरी को नाप आऊं
चाहती हूं मैं
और हर पंछी की तरह
घरौंदे पर लौट आऊं
चाहती हूं मैं

वो भीनी सी धूप में
खिल उठती है कली जैसे
यूं ही बरबस महक उठूं
चाहती हूं मैं
ठंडी छांव में फिर तेरी छुप जाऊं
चाहती हूं मैं

तू मेरा आसमां
तू मेरी धरती
तू ही मेरा समंदर
तेरा साथ पाकर
उन्मुक्त जीना
चाहती हूं मैं

Thanks to all those men who are the wind under the wings of their wives, daughters and sisters #internationalwomensday

खतों के सिलसिले

 

वो दिन भी क्या खूब हुआ करते थे
खतों में दोस्तों से रूबरू हुआ करते थे
खत भी हमारे अजीब ही होते थे
लड़कपन के ऊलजलूल ख्वाबों से सजते थे
यूँ ही हंसा जाते थे, तमाम बातें कह जाते थे
कभी शिकायतें कर जाते तो
कभी शेखी बघारने का तरीका तो
कभी छुट्टियों में मिलने की तरकीब बन जाते थे
महीने भर की कहानी सुना जाते थे तो
सालगिरह पर तमाम बधाई दे जाते थे
वो बंद लिफाफे बेक़रार कर जाते थे
अब सब अपनी उलझनों में मशगूल हैं
खतों के सिलसिले लगते फ़िज़ूल हैं
अब डाकिये दस्तक देते नहीं
चिट्ठियों के पुलिंदे लाते नहीं
अब बातें पुरानी हो जाती हैं
उन्हें बांटने की बेसब्री हम दिखते नहीं
अब हम मिलने  के मंसूबे बनाते नहीं

वो मेरा भगवान नहीं 

वो मेरा भगवान नहीं 
जो नन्ही कली का कुचलना 
यूँ ही गुमसुम देखता है 
वो मेरा भगवान् नहीं 
जो बीभत्स दुःकर्मियों  
यूँ ही हाथ बांधे रक्षा करता है 
वो मेरा भगवान नहीं 
यूँ ही जो अधर्म में आँखे मूंदे सोता है 
कैसा इश्वर है 
जो खोखले नारों में जीता है?
जो बेमतलब प्रथाओं में रमता है?
जो निरीह कन्या की पुकार 
को नहीं सुनता है? 
कहाँ है वो इश्वर 
अधर्म मिटाने को जिसने 
हर युग में जन्म लेने 
का किया था प्रण 
कहाँ है वो इश्वर 
जिसने अत्याचार से रक्षा 
का दिया था वचन?
ऐसा अँधा बहरा गूंगा और अपाहिज 
वो मेरा भगवान् नहीं

तुम और मैं


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तुम और मैं
अब हम बन
नयी राह पर चल पड़े हैं
तेरे सपने मेरे सपने
अब हम बन
नये आसमां में उड़ चले हैं
अब तू अगर राह के कंकर चुन लेगा
तो रोड़ों को मैं भी दूर करूंगी
राह के गड्ढों को तू पाट देगा
तो खायी मैँ भी नाप लूंगी
ताल में नैय्या तैरा लेगा
तो समुन्दर मैं भी पार करूंगी
तेज़ हवा में लौ बुझने न देगा
तो आँधियों से में भी लड़ सकूंगी
मेरे आंखियों के मोती बिखरने न देगा
तो तेरे हर दुःख का नाश करूंगी
अगर देगा तू साथ सदा
तो हर रिश्ता मैं भी निभा रहूंगी
बस हाथ थामे संग रहना
तू देखना
मैं तुझपर कितना प्यार करूंगी

फिर भी..


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हर दिन हों लगे चाहे सारे छप्पन भोग,
पर रस-स्वाद ढूँढ़ते हैं वो लोग,
हम तो लगाते अपने प्रभु को,
नमक-सूखी रोटी का भोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

फीके रंग, कपड़ा ढीला या तंग,
इसका करते हैं वो सोग,
पुराने-फटे पिछली होली के
रंगे कपड़ों में,
साल बिता लेते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

रौशनी के महलों,
ठंडी हवा के झोकों में,
भी निर-निराले उन्हें
लग जाते हैं रोग,
सितारों की चादर तले
सर्द-गर्म हवा को लगा गले,
यूँ ही इश्वर को,
प्यारे हों जाते हैं हम लोग
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

इस रोटी, कपड़ा और मकान
की जंग में ,
हर दिन हारते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

Yaari Dosti….

अमीरी गरीबी से परे हो
अहं से न घिरी हो
शर्तों में न बंधी हो
जिंदगी के तूफानों से लड
लौ जिसकी न बुझी हो
दोस्ती वो निराली है
नखरे उठाती नखरे दिखाती
उसकी नोंकझोंक ही बडी प्यारी है
गुनगुनी धूप सी
मन हरा कर जाए
दोस्ती तो वही निभाने वाली है
गिनती के ही हों सही
अपने यारों की लेकिन
खासी ऐसी यारी है

Tab Bhi Uljhan Hoti Thi; Ab Bhi Uljhan Hoti Hai

 

रेत से बटोरी सीपी ही
बचपन की दौलत होती थी
सिक्कों की खनक में लेकिन
अब दौलत अपनी नपती है
ऊंचे आस्मां में ही
बचपन की पतंग उड़ती थी
अब कहाँ उस नीली छतरी को
निहारने की फुर्सत होती है
कागज़ की कश्ती जाने कितने
किनारों की कहानी तब सुनती थी
पक्की सड़कों पर लेकिन अब
बारिश ही कहाँ उतनी होती है
इश्क़ के सपने सजाये
रैना पलकें मूँद लेती थी
पहली झुर्री की आहट से
अब रातों की नींद उड़ती है
जवां होने की लड़कपन को
बेहद जल्दी होती थी
ढलती उम्र थम जाए
अब इसकी फ़िक्र होती है
तब भी उलझन होती थी
अब भी उलझन होती है