रेत से बटोरी सीपी ही
बचपन की दौलत होती थी
सिक्कों की खनक में लेकिन
अब दौलत अपनी नपती है
ऊंचे आस्मां में ही
बचपन की पतंग उड़ती थी
अब कहाँ उस नीली छतरी को
निहारने की फुर्सत होती है
कागज़ की कश्ती जाने कितने
किनारों की कहानी तब सुनती थी
पक्की सड़कों पर लेकिन अब
बारिश ही कहाँ उतनी होती है
इश्क़ के सपने सजाये
रैना पलकें मूँद लेती थी
पहली झुर्री की आहट से
अब रातों की नींद उड़ती है
जवां होने की लड़कपन को
बेहद जल्दी होती थी
ढलती उम्र थम जाए
अब इसकी फ़िक्र होती है
तब भी उलझन होती थी
अब भी उलझन होती है
Very beautifully penned.
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Thank you 🙂
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