खतों के सिलसिले

 

वो दिन भी क्या खूब हुआ करते थे
खतों में दोस्तों से रूबरू हुआ करते थे
खत भी हमारे अजीब ही होते थे
लड़कपन के ऊलजलूल ख्वाबों से सजते थे
यूँ ही हंसा जाते थे, तमाम बातें कह जाते थे
कभी शिकायतें कर जाते तो
कभी शेखी बघारने का तरीका तो
कभी छुट्टियों में मिलने की तरकीब बन जाते थे
महीने भर की कहानी सुना जाते थे तो
सालगिरह पर तमाम बधाई दे जाते थे
वो बंद लिफाफे बेक़रार कर जाते थे
अब सब अपनी उलझनों में मशगूल हैं
खतों के सिलसिले लगते फ़िज़ूल हैं
अब डाकिये दस्तक देते नहीं
चिट्ठियों के पुलिंदे लाते नहीं
अब बातें पुरानी हो जाती हैं
उन्हें बांटने की बेसब्री हम दिखते नहीं
अब हम मिलने  के मंसूबे बनाते नहीं

कुछ लम्हे ख़ास होते हैं

कुछ लम्हे ख़ास होते हैं
यूँ ही दस्तक दे, छन से बिखर जाते हैं
सवाल खड़े कर जाते हैं…
वह पल पहले आता तो?
क्या यूँ ही गुदगुदा जाता?
या तब भी ओझल हो जाता ?
वक्त तब क्या करवट लेता?
रुला जाता या नशा चढ़ा जाता?
क्या बरसों की धूल से मैला हो जाता?
या अब सा नया ही रहता?
या इश्क़ बन जाता?
कि कुछ घडी का खेल?
खैर वक्त किसने बाँचा है…..
इन छोटे छोटे लम्हों को पिरो लो
तो दिल का एक कोना
हरा हो जाता है…
ऐसे लम्हों का इन्तजार रह जाता है

फिर भी..


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हर दिन हों लगे चाहे सारे छप्पन भोग,
पर रस-स्वाद ढूँढ़ते हैं वो लोग,
हम तो लगाते अपने प्रभु को,
नमक-सूखी रोटी का भोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

फीके रंग, कपड़ा ढीला या तंग,
इसका करते हैं वो सोग,
पुराने-फटे पिछली होली के
रंगे कपड़ों में,
साल बिता लेते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

रौशनी के महलों,
ठंडी हवा के झोकों में,
भी निर-निराले उन्हें
लग जाते हैं रोग,
सितारों की चादर तले
सर्द-गर्म हवा को लगा गले,
यूँ ही इश्वर को,
प्यारे हों जाते हैं हम लोग
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

इस रोटी, कपड़ा और मकान
की जंग में ,
हर दिन हारते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

Tab Bhi Uljhan Hoti Thi; Ab Bhi Uljhan Hoti Hai

 

रेत से बटोरी सीपी ही
बचपन की दौलत होती थी
सिक्कों की खनक में लेकिन
अब दौलत अपनी नपती है
ऊंचे आस्मां में ही
बचपन की पतंग उड़ती थी
अब कहाँ उस नीली छतरी को
निहारने की फुर्सत होती है
कागज़ की कश्ती जाने कितने
किनारों की कहानी तब सुनती थी
पक्की सड़कों पर लेकिन अब
बारिश ही कहाँ उतनी होती है
इश्क़ के सपने सजाये
रैना पलकें मूँद लेती थी
पहली झुर्री की आहट से
अब रातों की नींद उड़ती है
जवां होने की लड़कपन को
बेहद जल्दी होती थी
ढलती उम्र थम जाए
अब इसकी फ़िक्र होती है
तब भी उलझन होती थी
अब भी उलझन होती है