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कुछ लम्हे ख़ास होते हैं
कुछ लम्हे ख़ास होते हैं
यूँ ही दस्तक दे, छन से बिखर जाते हैं
सवाल खड़े कर जाते हैं…
वह पल पहले आता तो?
क्या यूँ ही गुदगुदा जाता?
या तब भी ओझल हो जाता ?
वक्त तब क्या करवट लेता?
रुला जाता या नशा चढ़ा जाता?
क्या बरसों की धूल से मैला हो जाता?
या अब सा नया ही रहता?
या इश्क़ बन जाता?
कि कुछ घडी का खेल?
खैर वक्त किसने बाँचा है…..
इन छोटे छोटे लम्हों को पिरो लो
तो दिल का एक कोना
हरा हो जाता है…
ऐसे लम्हों का इन्तजार रह जाता है
फिर भी..
हर दिन हों लगे चाहे सारे छप्पन भोग,
पर रस-स्वाद ढूँढ़ते हैं वो लोग,
हम तो लगाते अपने प्रभु को,
नमक-सूखी रोटी का भोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
फीके रंग, कपड़ा ढीला या तंग,
इसका करते हैं वो सोग,
पुराने-फटे पिछली होली के
रंगे कपड़ों में,
साल बिता लेते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
रौशनी के महलों,
ठंडी हवा के झोकों में,
भी निर-निराले उन्हें
लग जाते हैं रोग,
सितारों की चादर तले
सर्द-गर्म हवा को लगा गले,
यूँ ही इश्वर को,
प्यारे हों जाते हैं हम लोग
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
इस रोटी, कपड़ा और मकान
की जंग में ,
हर दिन हारते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
Tab Bhi Uljhan Hoti Thi; Ab Bhi Uljhan Hoti Hai