वक्त का क्या है
यूँ ही रेत बन
उंगलियों से फिसल जाता है
लाख कर लो मिन्नतें
पलट के नहीं देखता
यूँ ही धोका दे जाता है
ख्वाइशों का क्या है
यूँ ही पंख लगा
हर सू उड़ जाती है
लाख लगो लो लगाम
हाथ नहीं आती
यूँ ही दिल सुलगा जाती हैं
नज़र का क्या है
यूँ ही आवारा बन
दुनिया देख आती है
रस्मों की दे लो लाख दुहाई
अनसुना कर देती है
यूँ ही ललसा जाती है
आग ही है
जो वक्त से लड़ जाती है
शोले कुछ कर गुज़रें
ऐसी हवा चलाती है
ये कर जाए घर तो
यूँ ही दिल तड़पा जाती है
और मोहब्बत ही है
जो वक्त बाँध लेती है
ख्वाइश को राह दिखा देती है
नज़रों को ठिकाना देती है
मुझे और तुझे
बस यूँ ही संभल लेती है
Lovely poem Shoma…Kuch garmi kuch narmi hai in shabdon mein jo dil ko lubha jati hai.
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Thank you Upasana…you got it right.
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Fantastic write up. Loved reading this.
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Thank you Jyotirmay. Wrote this after quite a long time.
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I think you should carry on such writings.
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I hope to… 🙂
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