फिर भी..


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हर दिन हों लगे चाहे सारे छप्पन भोग,
पर रस-स्वाद ढूँढ़ते हैं वो लोग,
हम तो लगाते अपने प्रभु को,
नमक-सूखी रोटी का भोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

फीके रंग, कपड़ा ढीला या तंग,
इसका करते हैं वो सोग,
पुराने-फटे पिछली होली के
रंगे कपड़ों में,
साल बिता लेते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

रौशनी के महलों,
ठंडी हवा के झोकों में,
भी निर-निराले उन्हें
लग जाते हैं रोग,
सितारों की चादर तले
सर्द-गर्म हवा को लगा गले,
यूँ ही इश्वर को,
प्यारे हों जाते हैं हम लोग
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

इस रोटी, कपड़ा और मकान
की जंग में ,
हर दिन हारते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!

15 thoughts on “फिर भी..

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