हर दिन हों लगे चाहे सारे छप्पन भोग,
पर रस-स्वाद ढूँढ़ते हैं वो लोग,
हम तो लगाते अपने प्रभु को,
नमक-सूखी रोटी का भोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
फीके रंग, कपड़ा ढीला या तंग,
इसका करते हैं वो सोग,
पुराने-फटे पिछली होली के
रंगे कपड़ों में,
साल बिता लेते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
रौशनी के महलों,
ठंडी हवा के झोकों में,
भी निर-निराले उन्हें
लग जाते हैं रोग,
सितारों की चादर तले
सर्द-गर्म हवा को लगा गले,
यूँ ही इश्वर को,
प्यारे हों जाते हैं हम लोग
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
इस रोटी, कपड़ा और मकान
की जंग में ,
हर दिन हारते हैं हम लोग,
फिर भी हर दिन थोडा,
मुस्कुरा लेते हैं हम लोग !!
बहुत हि सुन्दर रचना , और उपर से भाषा कि सरलता ने भावों में चार चाँद लगा दिये …
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धन्यवाद। कोशिश करती हूं मैं के भाव सरल भाषा में बयान कर सकूं।
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Please read my first post
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Fabulous post
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Thank you
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बहुत अच्छे 👌
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धन्यवाद
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Nice . Please check out my blog http://ketakimalwade.com/. Your feedback will be appreciated.
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Will do. Thanks for visiting and liking the post.
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वाह क्या बात है
हर दिन थोड़ा मुस्कुरा लेते हैं हम
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Thank you.
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Nice one…
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Thank you
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बहुत खूब
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शुक्रिया
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